February 10, 2008

भटकती नज़र आती हैं कभी
गली-कूचों में, बेकार, यूं हीं
न मंजिल का होश, न रास्ते का ही,
हो चली हैं ज़माने से बेज़ार कहीं.

वीरान हैं अब,
गुज़ारे वक़्त सी ख़ामोश.
एक ज़माना था खिलखिलाती थीं
रोशन थी शमा इनकी भी कभी.

ख़ाली हैं क्यूँकर पैमाने ये आज,
खो आयीं हैं शायद ये कहीं
जो रहा करती थी इनमें अक्सर,
वो समंदर सी गहरी नमी.

जाने ढूँढती थीं क्या
कल जब मिलीं अचानक मुझको,
एक अरसे से गुमशुदा,
आईने में, निगाहें मेरी. 

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